संजय कुमार धीरज
पंजाब के चंडीगढ़ में टांडा रोड के साथ लगने वाली सुभाष नगर के 75 वर्षीय द्वारका भारती 12वीं पास हैं। परिवार और घर चलाने के लिए मोची का काम करते हैं। लेकिन सुकून के लिए साहित्य रचते हैं। भले ही वे 12वीं पास हैं, पर साहित्य की समझ के कारण उन्हें लेक्चर देने के लिए बुलाया जाता है। कई भाषाओं में साहित्यकार इनकी पुस्तकों का अनुवाद भी कर चुके हैं। इनकी स्वयं की लिखी कविता "एकलव्य" इग्नू में एमए के बच्चे पढ़ते हैं, वहीं पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र इस पर रिसर्च कर रहे हैं।
वे कहते हैं कि जो व्यवसाय आपका भरण–पोषण करे, वह इतना अधम हो ही नहीं सकता, जिसे करने में आपको शर्मिंदगी महसूस होगी। द्वारका कहते हैं कि- घर चलाने को गांठता हूँ जूते, सुकून के लिए रचता हूँ साहित्य।
सुभाष नगर में प्रवेश करते ही अपनी किराए की छोटी सी दुकान पर आज भी द्वारका भारती अपने हाथों से नए–नए जूते तैयार करते हैं। अक्सर उनकी दुकान के बाहर बड़े गाड़ियों में सवार साहित्य प्रेमी, अधिकारियों और साहित्यकारों का पहुंचना और साहित्य पर चर्चा करना आए दिन का हिस्सा है। चर्चा के दौरान भी वह अपने काम से जी नहीं चुराते और पूरे मनोयोग से जूते गांठते रहते हैं। फुरसत के पलों में भारती दर्शन और कार्ल मार्क्स के अलावा पश्चिमी व लैटिन अमेरिकी साहित्य का अध्ययन करते हैं।
द्वारका भारती ने बताया कि 12वीं तक पढ़ाई करने के बाद 1983 में होशियारपुर लौटे, तो वह अपने पुश्तैनी पेशे जूते गांठने में जुट गए। साहित्य से लगाव बचपन से था। उन्होंने डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात की क्रांतिकारी लेखनी से प्रभावित होकर उपन्यास "जूठन" का पंजाबी भाषा में अनुवाद किया। उपन्यास को पहले ही साल बेस्ट सेलर उपन्यास का खिताब मिला। इसके बाद पंजाबी उपन्यास "मशालची" का अनुवाद किया। इस दौरान दलित दर्शन, हिंदुत्व के दुर्ग में पुस्तक लेखन के साथ ही हंस, दिनमान, वागर्थ जैसी पत्रिकाओं में कविता, कहानी व निबंध भी लिखे।
द्वारका भारती ने बताया कि आज भी समाज में बर्तन धोने और जूते तैयार करने वाले मोची के काम को लोग हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जो नकारात्मक सोच को दर्शाता है। आदमी को उसका पेशा नहीं, बल्कि उसका कर्म महान बनाता है। वह घर चलाने के लिए जूते तैयार करते हैं, वहीं मानसिक खुराक व सुकून के लिए साहित्य की रचना करते हैं। जूते गांठना हमारा पेशा है। इसी से मेरा घर व मेरा परिवार का भरण–पोषण होता है।
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